भीषण त्रासदी को भुनाने की कोशिश करती कमजोर फिल्म

केदारनाथ की कहानी मंदिर के आसपास बसे कस्बे से शुरू होती है. यात्रियों को ले जाने वाले (पिट्ठू) मुस्लिम युवक मंसूर को एक ब्राह्मण की बेटी मुक्कू से प्रेम हो जाता है. मुक्कू का परिवार इस रिश्ते के खिलाफ खड़ा होता है. आखिरकार रातोंरात मुक्कू की शादी उसके मंगेतर से कर दी जाती है. मंसूर के प्रेम करने की सजा सभी मुस्लिमों को भुगतनी पड़ती है. इसके बाद कहानी करवट लेती है, जिसे जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

क्यों देखनी चाहिये?

मूवी में उत्तराखंड के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों का पूरा दोहन किया गया है. गगन छूते पहाड़ और कल-कल बहती नदियां आपकी आंखों को सुकून देंगी. भीषण बाढ़ के दृश्य को भी पहली बार इतनी वास्तविकता के साथ किसी हिंदी फिल्म में दिखाया गया है. VFX के जरिये रचे गए बाढ़ के मंजर ने दर्शकों को यह अंदाजा लगाने में मदद की है कि 2013 में आई केदारनाथ की बाढ़ कुदरत का कितना खौफनाक रूप थी.

अभिषेक कपूर कहानी में नयापन दिखाने में भले ही सफल ना हुए हो, लेकिन बाढ़ की विभीषिका दिखाने में जरूर कामयाब हुए.  इसका एक निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि उन्हें फिल्म नहीं, डॉक्यूमेंट्री बनानी चाहिए थी. मूवी के लिहाज से वे कहानी के स्तर पर बेहद सतही रहे. रिसर्च कमजोर दिखता है. यदि आप टाइटैनिक जैसी जल त्रासदी पर्दे पर नए रूप में देखना चाहते हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं. सिनेमेटोग्राफर और टेक्नीशियंस का काम पर्दे पर दिखता है.

सारा खूबसूरत नजर आई हैं. अदाकारी में उनके तेवर मां अमृता सिंह की याद दिलाते हैं. सुशांत सिंह राजपूत ने कहानी के मुताबिक पूरा न्याय किया. इस बार उन्होंने संवाद के बजाय अपने फेसियल एक्सप्रेशन के जरिए अभिनय किया. सबसे ज्यादा ईमानदार अभिनय किसी किरदार का दिखता है तो वो हैं अलका अमीन, जिन्होंने सुशांत की मां का किरदार निभाया.

नमो नमो गाना अच्छा फिल्माया गया है. कई जगह साउंड स्कोर सीन के मुताबिक लगता है. बाढ़ के दृश्यों में और बेहतर साउंड स्कोर हो सकता था.

कमजोर कड़ी

यदि बाढ़ की विभीषिका के दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो 70 फ़ीसदी फिल्म में कमजोर कड़ियां ही दिखी हैं. मानव त्रासदियों को फिल्मों के जरिये भुनाने का रिवाज नया नहीं है, लेकिन ऐसी फिल्मों में कहानी और संवेदनाएं ही 'हीरो' होती हैं. फ़िल्म केदारनाथ में कहानी बेहद घिसी-पिटी और कमजोर है. एक युगल की साधारण प्रेम कहानी, जिनका रिश्ता उनके परिवार को मंजूर नहीं. मानो सिर्फ केदारनाथ की भीषण बाढ़ दिखाने के लिए ही एक साधारण सी कहानी का चुनाव कर लिया गया हो.

सुशांत ने कहानी के मुताबिक न्याय करने की कोशिश की, लेकिन उनका गुस्सा और मुस्कान हर फिल्म में एक ही जैसी होती है. सारा स्क्रीन पर अपना असर दिखाने की कोशिश में कई मर्तबा ओवर एक्टिंग करती नजर आती हैं. उनकी अदाकारी वास्तविकता के बजाय 'अदाकारी' ही मालूम पड़ती है.

इस तरह के धार्मिक वातावरण और प्राकृतिक नजारों के बीच संगीत को और अधिक निखारा जा सकता था. कहानी में मुस्लिमों के प्रति दुर्भावना, पूर्वग्रह और भेदभाव दिखाने की कोशिश की, लेकिन कई बार ये बेवजह और अस्वाभाविक लगता है. अधिक लाभ कमाने के मकसद से वादी में कंस्ट्रक्शन को बाढ़ की वजह दिखाने की कोशिश की गई, लेकिन ये तथ्य मजबूती से स्थापित नहीं हो पाता. फिल्म के संवाद बहुत प्रभावी और नायाब नहीं हैं, जिनकी भरपाई एक्टर्स को अपने एक्सप्रेशन्स से करनी पड़ती है.

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